उल्टे संसार रूपी वृक्ष का रहस्य: अक्षर पुरुष और उनके लोक की पूरी जानकारी
प्रस्तावना
भारतीय दर्शन और अध्यात्म में “संसार रूपी वृक्ष” की अवधारणा बहुत गहरी और प्रतीकात्मक है। भगवद्गीता के 15वें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने इस संसार को एक “उल्टा वृक्ष” (अश्वत्थ वृक्ष) के रूप में वर्णित किया है। इसका तना, जड़ें, शाखाएँ और पत्तियाँ हमारे जीवन और ब्रह्मांड की संरचना को दर्शाते हैं। इस संदर्भ में “अक्षर पुरुष” एक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में उभरता है। आइए, इस उल्टे वृक्ष और अक्षर पुरुष के लोक के बारे में विस्तार से जानते हैं।
उल्टा वृक्ष क्या है?
भगवद्गीता (15.1-3) में कहा गया है:
“ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥”
अर्थात, इस संसार रूपी वृक्ष की जड़ें ऊपर (आध्यात्मिक क्षेत्र या परमात्मा) की ओर हैं, और शाखाएँ नीचे (भौतिक संसार) की ओर फैली हुई हैं। इसे “अश्वत्थ वृक्ष” कहा जाता है, जो नश्वर होने के बावजूद अविनाशी प्रतीत होता है। इसकी पत्तियाँ वेदों के छंदों के समान हैं, और जो इस वृक्ष को समझ लेता है, वही सच्चा ज्ञानी है।
जड़ें: ये परमात्मा या ब्रह्म को दर्शाती हैं, जो इस वृक्ष का आधार हैं।
तना: यह “अक्षर पुरुष” को संकेत करता है, जो जड़ों और शाखाओं के बीच एक सेतु की तरह है।
शाखाएँ: ये भौतिक संसार, तीन गुणों (सत, रज, तम) और कर्मफल के विस्तार को दर्शाती हैं।
यह वृक्ष उल्टा इसलिए कहा जाता है क्योंकि सामान्य वृक्ष की जड़ें नीचे और शाखाएँ ऊपर होती हैं, लेकिन यहाँ आध्यात्मिक स्रोत ऊपर है और भौतिक संसार नीचे फैला हुआ है।
अक्षर पुरुष कौन है?
भारतीय दर्शन में तीन पुरुषों की बात की जाती है:
क्षर पुरुष: यह नश्वर जीवात्माएँ हैं, जो शरीर और भौतिक संसार से बंधी हैं।
अक्षर पुरुष: यह अविनाशी आत्मा या चेतना है, जो क्षर से ऊपर लेकिन परम पुरुष से नीचे है। यह संसार रूपी वृक्ष का तना है।
परम पुरुष (पुरुषोत्तम): यह परमात्मा है, जो इस वृक्ष की जड़ और सर्वोच्च सत्ता है।
अक्षर पुरुष को “कूटस्थ” भी कहा जाता है, अर्थात् वह जो स्थिर और अपरिवर्तनशील है। यह वह चेतना है जो न तो जन्म लेती है और न ही मरती है, लेकिन कर्म और माया के प्रभाव से संसार में बंधी हुई प्रतीत होती है।
भगवद्गीता के 15वें अध्याय में इसे”अक्षर” के रूप में वर्णशत
ककया गया है, जो क्षर (नश्वर) और परुुषोिम (अत्तवनार्ी परम) के बीच की कडी है।
अक्षर पुरुष का तना क्यों?
संसार रूपी वृक्ष में अक्षर पुरुष को तना इसलिए कहा जाता है क्योंकि:
यह जड़ों (परमात्मा) से शक्ति लेकर शाखाओं (भौतिक संसार) को पोषण देता है।
यह स्थिरता और संतुलन का प्रतीक है, जो नश्वर और अविनाशी के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाता है।
जैसे वृक्ष का तना जड़ों और पत्तियों को जोड़ता है, वैसे ही अक्षर पुरुष आत्मा को परमात्मा और संसार से जोड़ता है।
अक्षर पुरुष का लोक या स्थान
अक्षर पुरुष का लोक एक आध्यात्मिक अवस्था या क्षेत्र है, जिसे “अक्षर धाम” या “ब्रह्मलोक” के रूप में जाना जाता है। यह न तो पूर्णतः भौतिक है और न ही पूर्णतः परम धाम (पुरुषोत्तम का क्षेत्र)। इसके बारे में निम्नलिखित जानकारी दी जा सकती है:
स्थान:
यह सतलोक या कैवल्य धाम के नीचे और भौतिक संसार के ऊपर माना जाता है।
वेदांत में इसे “हिरण्यगर्भ” या “महत्त्व” का क्षेत्र भी कहा जाता है, जहाँ सूक्ष्म चेतना निवास करती है।
यह वह स्थान है जहाँ जीवात्मा माया के बंधनों से मुक्त होकर अपनी शुद्ध अवस्था में रहती है, लेकिन अभी भी परम पुरुष के साथ पूर्ण एकीकरण से दूर है।
विशेषताएँ:
यहाँ समय और मृत्यु का प्रभाव नहीं होता, लेकिन यह परम शांति का क्षेत्र नहीं है, क्योंकि यहाँ से भी परम धाम की ओर जाना संभव है।
यहाँ की चेतना तीन गुणों (सत, रज, तम) से परे है, लेकिन पूर्ण मुक्त नहीं।
योगी और साधक इसे ध्यान और समाधि के माध्यम से अनुभव करते हैं।
शास्त्रों में उल्लेख
भगवद्गीता (15.16-17) में कहा गया है:
“द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥”
अर्थात, संसार में दो पुरुष हैं – क्षर और अक्षर। क्षर सभी शरीरों में है, और कूटस्थ को अक्षर कहा जाता है
उपनिषदों (जैसे मुंडक उपनिषद) में इसे “श्वेताश्वतर” या अत्तवनारी क्षेत्र के रूप में वर्णित किया गया है।
अक्षर पुरुष और संसार का संबंध
अक्षर पुरुष इस उल्टे वृक्ष का तना होने के कारण संसार के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह वह बिंदु है जहाँ से जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार ऊपर (परमात्मा) या नीचे (संसार) की ओर जाती है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं:
जैसे सूर्य का प्रकाश बादलों से छनकर पृथ्वी पर आता है, वैसे ही परमात्मा की चेतना अक्षर पुरुष के माध्यम से संसार तक पहुँचती है।
आध्यात्मिक महत्व
इस उल्टे वृक्ष और अक्षर पुरुष को समझने का उद्देश्य जीवन की वास्तविकता को जानना है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस वृक्ष को “वैराग्य रूपी शस्त्र” से काटकर परम धाम की ओर बढ़ना चाहिए। अक्षर पुरुष का लोक एक पड़ाव है, जहाँ से साधक को पुरुषोत्तम की शरण लेनी होती है।
निष्कर्ष
“उल्टे संसार रूपी वृक्ष” का तना अक्षर पुरुष एक प्रतीक है जो हमें जीवन के दोहरे स्वरूप – नश्वर और अविनाशी – को समझाता है। इसका लोक वह सूक्ष्म क्षेत्र है जहाँ आत्मा अपनी शुद्धता को पहचानती है, लेकिन पूर्ण मुक्त होने के लिए उसे परम पुरुष की ओर बढ़ना पड़ता है। यह अवधारणा हमें यह सिखाती है कि जीवन का लक्ष्य केवल भौतिक सुख नहीं, बल्कि उस मूल स्रोत तक पहुँचना है, जहाँ से यह वृक्ष उत्पन्न हुआ है।
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