सिखधर्म: उद्भव, इतिहास और इसकी शिक्षाएँ

सिख धर्म, मानवता, समानता और एकेश्वरवाद पर आधारित एक विश्व धर्म, 15वीं शताब्दी में भारत के पंजाब क्षेत्र में शुरू हुआ। इसकी नींव गुरु नानक देव जी ने रखी, जिन्होंने सामाजिक कुरीतियों और धार्मिक कर्मकांडों के खिलाफ एक नया आध्यात्मिक मार्ग दिखाया। सिख धर्म केवल एक धर्म नहीं, बल्कि एक जीवन शैली है, जो सत्य, मेहनत, और सेवा पर जोर देता है। सिख धर्म की स्थापना 1469 में गुरु नानक देव जी के जन्म के साथ शुरू हुई। वे तलवंडी (अब ननकाना साहिब, पाकिस्तान) में एक सामान्य परिवार में पैदा हुए। उस समय भारत में जातिवाद, धार्मिक अंधविश्वास, और सामाजिक असमानता गहरी थी। गुरु नानक ने इनका विरोध किया और एक ऐसे धर्म की नींव रखी, जो सभी को एक समान मानता था। उनकी शिक्षाएँ सरल थीं, लेकिन गहरी: गुरु नानक ने चार लंबी यात्राएँ (उदासियाँ) कीं, जिनमें उन्होंने भारत, श्रीलंका, तिब्बत, मध्य एशिया, और अरब देशों तक अपनी शिक्षाएँ पहुँचाई। उन्होंने हिंदू, मुस्लिम, और अन्य समुदायों के बीच एकता का संदेश दिया। उनकी मृत्यु 1539 में हुई, लेकिन उनकी शिक्षाएँ उनके उत्तराधिकारी गुरुओं के माध्यम से आगे बढ़ीं। दस गुरुओं का योगदान सिख धर्म का विकास दस गुरुओं के मार्गदर्शन में हुआ, जिन्होंने 1469 से 1708 तक सिख समुदाय को आध्यात्मिक और सामाजिक रूप से मजबूत किया। यहाँ प्रत्येक गुरु के प्रमुख योगदान का संक्षिप्त विवरण है: खालसा पंथ: सिख पहचान की स्थापना 1699 में, गुरु गोबिंद सिंह जी ने वैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की। यह सिख धर्म का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। खालसा का अर्थ है “शुद्ध” या “स्वतंत्र”। गुरु जी ने पांच प्यारों (पंज प्यारे) को चुना और उन्हें अमृत (खंडे बटे दा अमृत) देकर खालसा बनाया। खालसा सिखों को निम्नलिखित पांच ककार धारण करने का आदेश दिया गया: खालसा ने सिखों को एक सैन्य और आध्यात्मिक पहचान दी, जो अन्याय के खिलाफ लड़ने और धर्म की रक्षा करने के लिए तैयार थी। गुरु ग्रंथ साहिब: शाश्वत गुरु 1708 में, गुरु गोबिंद सिंह जी ने गुरु ग्रंथ साहिब को सिखों का अंतिम गुरु घोषित किया। यह पवित्र ग्रंथ सिख धर्म का केंद्रीय आधार है, जिसमें गुरु नानक और अन्य गुरुओं की बानी, साथ ही विभिन्न संतों (जैसे कबीर, रविदास, और फरीद) की रचनाएँ शामिल हैं। गुरु ग्रंथ साहिब केवल एक किताब नहीं, बल्कि सिखों के लिए जीवंत मार्गदर्शक है, जो जीवन के हर पहलू में प्रेरणा देता है। सिख इतिहास: संघर्ष और समृद्धि 18वीं शताब्दी में, सिखों को मुगल शासकों और अफगान आक्रमणकारियों से भारी उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। गुरु गोबिंद सिंह जी के पुत्रों और कई सिखों ने धर्म और स्वतंत्रता के लिए बलिदान दिया। फिर भी, सिखों ने अपनी एकता और साहस से मिसल (सिख सैन्य समूह) बनाए और पंजाब में अपनी ताकत बढ़ाई।19वीं शताब्दी में, महाराजा रणजीत सिंहने सिख साम्राज्य की स्थापना की (1799-1839), जो पंजाब, कश्मीर, और उत्तर-पश्चिमी भारत तक फैला। यह सिख इतिहास का स्वर्ण युग था, जिसमें कला, संस्कृति, और धर्म का विकास हुआ।1849 में, अंग्रेजों ने सिख साम्राज्य को अपने अधीन कर लिया, लेकिन सिखों ने अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखा। 20वीं शताब्दी में, सिखों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया। आधुनिक सिख धर्म आज विश्व भर में लगभग 3 करोड़ सिख हैं, जो भारत, कनाडा, ब्रिटेन, अमेरिका, और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में रहते हैं। सिख धर्म की शिक्षाएँ—समानता, सेवा, और सत्य—आज भी प्रासंगिक हैं।गुरुद्वारेसिख समुदाय के केंद्र हैं, जहाँलंगरसभी के लिए मुफ्त भोजन के रूप में सामाजिक समानता का प्रतीक है। सिख समुदाय ने शिक्षा, चिकित्सा, और आपदा राहत जैसे क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान दिया है। सिख धर्म की प्रमुख शिक्षाएँ सिख धर्म की कुछ मुख्य शिक्षाएँ हैं: निष्कर्ष सिख धर्म की शुरुआत 15वीं शताब्दी में गुरु नानक देव जी से हुई, और यह दस गुरुओं के मार्गदर्शन में विकसित हुआ। गुरु ग्रंथ साहिब के रूप में इसका शाश्वत मार्गदर्शन आज भी सिखों और मानवता को प्रेरित करता है।

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संसार: भवसागर का गहरा सागर

संसार: भवसागर का गहरा सागर संसार को प्राचीन भारतीय दर्शन में अक्सर “भवसागर” कहा जाता है—एक ऐसा सागर जो अनंत गहराइयों और अनगिनत रहस्यों से भरा है। यह न केवल एक रूपक है, बल्कि जीवन की जटिलता, उसकी अनिश्चितता और उसमें निहित संभावनाओं का प्रतीक भी है। भवसागर का अर्थ है “जन्म और मृत्यु का चक्र” जिसमें हर प्राणी तैर रहा है, कभी किनारा ढूंढता हुआ, तो कभी लहरों की थपेड़ों में खोया हुआ। गहराई का अनुभव संसार का यह सागर साधारण जलराशि नहीं है। इसकी गहराई में सुख-दुख, आशा-निराशा, प्रेम-घृणा जैसे अनगिनत भाव निहित हैं। जब हम इसमें डुबकी लगाते हैं, तो कभी सतह पर तैरती सूर्य की किरणों को देखते हैं, तो कभी अंधेरे तल में खो जाते हैं। यह सागर हमें सिखाता है कि जीवन स्थिर नहीं है—हर पल एक नई लहर आती है, जो हमें या तो ऊपर उठाती है या नीचे खींच ले जाती है। तैरने की कला क्या इस भवसागर को पार करना संभव है? शायद हां, शायद नहीं। लेकिन एक बात निश्चित है—इसमें डूबना या तैरना हमारे हाथ में है। जो लोग इसे केवल एक बोझ मानते हैं, वे लहरों से लड़ते-लड़ते थक जाते हैं। वहीं, जो इसे एक यात्रा समझते हैं, वे हर लहर के साथ तालमेल बिठाना सीखते हैं। यही कला है जो हमें संसार के इस सागर में संतुलन देती है—न बहुत ऊंची उड़ान की चाह, न बहुत गहराई में डूबने का डर। किनारे की खोज कहते हैं कि भवसागर का किनारा “मोक्ष” है—वह अवस्था जहां जन्म-मृत्यु का चक्र थम जाता है। लेकिन क्या यह किनारा वास्तव में कोई स्थान है, या एक मानसिक स्थिति? शायद यह सागर बाहर नहीं, बल्कि हमारे भीतर है। जब हम अपनी इच्छाओं, आसक्तियों और भय को समझ लेते हैं, तो शायद किनारा अपने आप दिखाई देने लगे। यह खोज बाहर की यात्रा से ज़्यादा भीतर की तलाश है। सागर का संदेश संसार का यह भवसागर हमें डराता भी है और प्रेरित भी करता है। यह हमें याद दिलाता है कि हम अकेले नहीं हैं—हर प्राणी इस सागर का यात्री है। कोई तेजी से तैर रहा है, कोई धीरे-धीरे बह रहा है, और कोई किनारे की ओर बढ़ रहा है। लेकिन सबके लिए यह सागर एक जैसा नहीं है—हर किसी की लहरें अलग हैं, हर किसी का अनुभव अनूठा है। अंत में भवसागर हमें सिखाता है कि जीवन को जितना समझने की कोशिश करेंगे, उतना ही वह रहस्यमयी बना रहेगा। शायद यही इसकी सुंदरता है—एक ऐसा सागर जो कभी समाप्त नहीं होता, पर हर पल कुछ नया सिखा जाता है। तो आइए, इस सागर में डुबकी लगाएँ, तैरें, और इसे जी भर कर जिएं—क्योंकि यही तो संसार है।

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सच्चिदानंद घन ब्रह्म

सच्चिदानंद घन ब्रह्म के परमधाम, सतलोक  : एक आध्यात्मिक यात्रा हिंदू धर्म में सच्चिदानंद घन ब्रह्म के सतलोक, परधाम को सबसे अन्य आध्यात्मिक स्थान माना जाता है। वह स्थान भ्रमण की सबसे उच्च अवस्था का प्रतीक है। जहां वह अपने सबसे शुद्ध और पवित्र रूप में विराजमान होते है। इस लेख में, हम सच्चिदानंद घन ब्रह्म परमात्मा के सतलोक, परमधाम बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे। परमधाम के अवधारणा परमधाम एक ऐसा स्थान है। जहां सच्चिदानंद घन ब्रह्म की उपस्थिति होती है। वह स्थान ब्रह्म के सबसे उच्च अवस्था का प्रतीक है। जहां परमात्मा अपने सबसे शुद्ध और पवित्र रूप में विराजमान होते है। परमधाम को सतलोक भी कहा जाता है। जो ब्रह्म के निवास स्थान का प्रतीक है। सतलोक की विशेषताए सतलोक की कई विशेषताएं है। जो एक अद्वितीय और आध्यात्मिक स्थान बनाती  है। पवित्रता और शुद्धता सतलोक  एक  ऐसा  स्थान है।  जहा सच्चिदानंद घर ब्राह्म की उपस्थिति होती है। जो सबसे पवित्र और शुद्ध अवस्था में होते है। आध्यात्मिक ज्ञान सतलोक  एक ऐसा  स्थान है। जहां आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति होती है। , जो की जीत की आत्मा के मोक्ष के लिए आवश्यक है। आनन्द और शांति सतलोक  एक  ऐसा  स्थान है। जहां आनंद और शांति की अनुभूति होती है। जो आत्मा की मोक्ष या शांति के लिए आवश्यक है। सतलोक की प्राप्ति सतलोक की प्राप्ति एक कठिन और लंबी यात्रा है। जिसमें आध्यात्मिक ज्ञान और आत्मा निधि की आवश्यकता होती है यह यात्रा जीव की आत्मा के मोक्ष के लिए आवश्यक है। और इसके लिए एक सच्चे और पवित्र हृदय की आवश्यकता होती है। आध्यात्मिक चरण की यात्रा सतलोक की प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक यात्रा के कई चरण है। 1. आत्म निरीक्षण: आत्मा नरेशन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें हम जीव अपने विचारों भावनाओं और क्रियाओ को विश्लेषण करते है। 2. ध्यान: परमात्मा का ध्यान एक ऐसी प्रक्रिया है। जिसमें हृदय अपने मन को शांत और प्रकाश करते है। 3. आधुनिक ज्ञान: हमारे जीवन में अधिक ज्ञान का एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें हम आध्यात्मिक सिद्धांतों और अवधारणा का अध्ययन करते है। निष्कर्ष: संसार रूपी उल्टे वृक्ष में सच्चिदानंद घन ब्रह्म परमात्मा के सतलोक, परमधाम एक आध्यात्मिक मोक्ष का स्थान है। जो प्रत्येक जीव की आत्मा के लिए बहुत महत्वपूर्ण है परमधाम स्थान ब्रह्म की सबसे उच्च अवस्था का प्रतीक है। जो काल अवधि से अलग है जिसमें जीव की आत्मा जाने के बाद भवसागर बंधनों से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाता है। क्योंकि यह स्थान ब्रह्म की उच्च अवस्था का  प्रतीक है। जहां पर हम परमात्मा अपने सबसे शुद्ध और पवित्र रूप में काल (समय) की अवधि से बाहर विराजमान है।

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इलेक्ट्रॉन (रजोगुण), न्यूरॉन (विष्णु), प्रोटॉन (महेश) के बीच कोई संबंध है

एक वैज्ञानिक और आध्यात्मिक यात्रा हमारे प्राचीन ग्रंथों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश (शिव) को त्रिदेव के रूप में जाना जाता है। ये तीनों देवता सृष्टि के मूल आधार माने जाते हैं—ब्रह्मा सृजनकर्ता, विष्णु पालक और महेश संहारक। दूसरी ओर, आधुनिक विज्ञान हमें बताता है कि परमाणु के तीन मूल कण—इलेक्ट्रॉन, न्यूरॉन और प्रोटॉन—प्रकृति की हर चीज़ का आधार हैं। क्या यह संभव है कि हमारे ऋषि-मुनियों ने इन वैज्ञानिक तत्वों को प्रतीकात्मक रूप में व्यक्त किया हो? आइए, इस रोचक संभावना पर एक नज़र डालें। 1. इलेक्ट्रॉन और रजोगुण (ब्रह्मा) इलेक्ट्रॉन परमाणु का वह कण है जो लगातार गतिशील रहता है। यह नकारात्मक चार्ज लिए हुए होता है और परमाणु के बाहरी हिस्से में चक्कर लगाता है। रजोगुण, जो तीन गुणों (सत, रज, तम) में से एक है, गति, ऊर्जा और सृजन का प्रतीक है। ब्रह्मा को सृष्टि का रचनाकार कहा जाता है, और उनकी यह भूमिका इलेक्ट्रॉन की गतिशीलता से मेल खाती है। जैसे इलेक्ट्रॉन रासायनिक बंधनों के ज़रिए नए पदार्थों का निर्माण करता है, वैसे ही ब्रह्मा सृष्टि की नींव रखते हैं। क्या यह मात्र संयोग है कि दोनों में सृजन की शक्ति समान दिखती है? 2. न्यूरॉन और विष्णु न्यूरॉन परमाणु का वह कण है जो तटस्थ (न्यूट्रल) होता है—न तो सकारात्मक, न नकारात्मक। यह परमाणु के केंद्र में स्थिरता प्रदान करता है। विष्णु को सृष्टि का पालक माना जाता है, जो संतुलन और शांति बनाए रखते हैं। सतोगुण, जो विष्णु से जुड़ा है, शुद्धता और स्थिरता का प्रतीक है। न्यूरॉन की तरह, विष्णु भी सृष्टि को बिना पक्षपात के संभालते हैं। क्या हमारे पूर्वजों ने न्यूरॉन की इस तटस्थता को विष्णु के रूप में देखा होगा? 3. प्रोटॉन और महेश (शिव) प्रोटॉन सकारात्मक चार्ज वाला कण है, जो परमाणु के नाभिक में मजबूती से स्थित होता है। यह परमाणु की पहचान तय करता है। महेश, यानी शिव, संहार के देवता हैं, जो पुराने को नष्ट कर नए के लिए जगह बनाते हैं। तमोगुण, जो शिव से जुड़ा है, परिवर्तन और शक्ति का प्रतीक है। प्रोटॉन की मजबूत मौजूदगी और संहार के बाद नए निर्माण की संभावना शिव की भूमिका से मिलती-जुलती है। क्या प्रोटॉन का यह बल शिव की संहारक ऊर्जा का प्रतीक होता है? विज्ञान और अध्यात्म का संगम कई विद्वानों का मानना है कि प्राचीन भारत में विज्ञान और अध्यात्म एक ही सिक्के के दो पहलू थे। संभव है कि हमारे ऋषियों ने प्रकृति के सूक्ष्म रहस्यों को कहानियों और प्रतीकों के ज़रिए समझाया हो। इलेक्ट्रॉन, न्यूरॉन और प्रोटॉन की खोज भले ही आधुनिक विज्ञान की देन हो, लेकिन त्रिदेव की अवधारणा में इन कणों की विशेषताएँ पहले से ही मौजूद दिखती हैं। यह विचार हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि शायद हमारी सभ्यता ने बहुत पहले ही ब्रह्मांड के मूल तत्वों को समझ लिया था। क्या यह सच है या प्रतीक मात्र? यह सच हो सकता है कि त्रिदेव और परमाणु के कणों के बीच कोई सीधा वैज्ञानिक संबंध न हो। यह भी संभव है कि यह सिर्फ एक प्रतीकात्मक व्याख्या हो, जो संयोगवश समान दिखती हो। लेकिन इस विचार का सौंदर्य यह है कि यह हमें विज्ञान और अध्यात्म के बीच संवाद की संभावना दिखाता है। यह हमें अपने प्राचीन ज्ञान की गहराई को फिर से समझने का मौका देता है। अंतिम विचार चाहे आप इसे एक गहरे रहस्य के रूप में देखें या एक रोचक संभावना के रूप में, इलेक्ट्रॉन, न्यूरॉन और प्रोटॉन को ब्रह्मा, विष्णु और महेश से जोड़ने का विचार निश्चित रूप से सोचने योग्य है। यह हमें याद दिलाता है कि समय की खोज में विज्ञान और अध्यात्म एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं। आपका क्या विचार है? क्या आपको लगता है कि हमारे पूर्वजों ने परमाणु के रहस्य को पहले ही जान लिया था? अपनी राय ज़रूर साझा करें!

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संसार रूपी उल्टे वृक्ष की शाखाओं ब्रह्मा (रजोगुण), विष्णु (सतोगुण), महेश (तमोगुण) के लोक और उनकी व्याख्या

हिंदू दर्शन में संसार को एक उल्टे वृक्ष के रूप में वर्णित किया गया है, जिसकी जड़ें ऊपर (आध्यात्मिक सत्य या परमात्मा) और शाखाएं नीचे (भौतिक संसार) फैली हुई हैं। यह रूपक हमें गहरा संदेश देता है कि जो कुछ हम देखते हैं, वह वास्तविकता का केवल एक हिस्सा है, और इसकी जड़ें उस परम सत्य में छिपी हैं जो हमारी आंखों से परे है। इस वृक्ष की शाखाओं को त्रिदेव – ब्रह्मा, विष्णु और महेश – के लोकों से जोड़ा जाता है, जो क्रमशः रजोगुण, सतोगुण और तमोगुण का प्रतिनिधित्व करते हैं। आइए इन शाखाओं को समझते हैं। ब्रह्मा का लोक: रजोगुण की शाखा ब्रह्मा को सृष्टि का रचयिता कहा जाता है। उनका लोक रजोगुण से संचालित है, जो कर्म, गति और सृजन का प्रतीक है। रजोगुण वह शक्ति है जो संसार में गतिविधि और परिवर्तन लाती है। ब्रह्मा का यह लोक उस शाखा की तरह है जो नई पत्तियों और फूलों को जन्म देती है। यहाँ जीवन ऊर्जा से भरा होता है, लेकिन यह स्थायी नहीं होता। जैसे वृक्ष की शाखाएं हवा में हिलती हैं, वैसे ही रजोगुण मन को अस्थिर और सांसारिक इच्छाओं की ओर ले जाता है। ब्रह्मलोक में भले ही सृजन की शक्ति हो, पर यहाँ भी आत्मा पूर्ण शांति नहीं पाती, क्योंकि रजोगुण उसे कर्म के चक्र में बांधे रखता है। विष्णु का लोक: सतोगुण की शाखा विष्णु, जो पालनकर्ता हैं, उनका लोक सतोगुण से जुड़ा है। सतोगुण शुद्धता, ज्ञान और संतुलन का प्रतीक है। यह वह शाखा है जो वृक्ष को स्थिरता और सुंदरता देती है। विष्णु का वैकुंठ लोक एक ऐसी जगह है जहाँ आत्माएं सांसारिक दुखों से मुक्त होकर शांति और भक्ति में लीन रहती हैं। यहाँ सतोगुण के प्रभाव से मन निर्मल होता है और सत्य की ओर बढ़ता है। लेकिन फिर भी यह शाखा उस मूल जड़ से अलग है, क्योंकि यहाँ तक पहुंचने वाली आत्माएं अभी भी भौतिक और सूक्ष्म संसार के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं होतीं। महेश का लोक: तमोगुण की शाखा महेश यानी शिव, संहारकर्ता, तमोगुण से संबंधित हैं। तमोगुण अज्ञान, निष्क्रियता और विनाश का प्रतीक है। शिव का कैलाश लोक उस शाखा की तरह है जो वृक्ष के पुराने और अनावश्यक हिस्सों को खत्म करती है। यहाँ संहार का मतलब केवल अंत नहीं, बल्कि नई शुरुआत के लिए जगह बनाना भी है। तमोगुण मन को आलस्य या अंधेरे की ओर ले जा सकता है, लेकिन शिव के लोक में यह शक्ति ध्यान और तप के रूप में परिवर्तित होकर आत्मा को मुक्ति की ओर ले जाती है। कैलाश वह स्थान है जहाँ सांसारिक बंधन टूटते हैं। उल्टे वृक्ष का रहस्य यह उल्टा वृक्ष हमें बताता है कि संसार की ये तीन शाखाएं – रजोगुण, सतोगुण और तमोगुण – एक ही वृक्ष का हिस्सा हैं। इनका आधार वह परमात्मा है, जो इन गुणों से परे है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश के लोक भले ही अलग-अलग दिखें, पर वे उस एक सत्य की अभिव्यक्ति मात्र हैं। हमारा लक्ष्य इन शाखाओं में उलझने के बजाय जड़ तक पहुंचना होना चाहिए, जहाँ न सृजन है, न पालन, न संहार – केवल शुद्ध चेतना है। अंतिम विचार संसार रूपी यह वृक्ष हमें सोचने पर मजबूर करता है कि हम कहाँ हैं – सृजन की अस्थिरता में, पालन की शांति में, या संहार की गहराई में। हर शाखा हमें कुछ सिखाती है, लेकिन असली मुक्ति तब है जब हम इन गुणों को पार कर उस जड़ तक पहुंचें, जो इस उल्टे वृक्ष का आधार है। क्या आप भी इस यात्रा पर हैं?

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छर पुरुष (छर ब्रह्म)

उल्टे संसार रूपी वृक्ष में छर ब्रह्म, निरंजन, महाविष्णु, सदाशिव जैसे इत्यादि नामों से जाने वाले ब्रह्म के लोक के बारे में एक विस्तृत जानकारी लेंगे। उल्टे संसार रूपी वृक्ष और निरंजन या छर ब्रह्म के लोक का रहस्यमयी विवरण हमारे प्राचीन शास्त्रों और दार्शनिक ग्रंथों में संसार को एक उल्टे वृक्ष के रूप में वर्णित किया गया है। इसकी जड़ें ऊपर आकाश की ओर और शाखाएँ नीचे धरती की ओर फैली हुई हैं। यह रूपक हमें जीवन, सृष्टि और ब्रह्मांड के गहरे रहस्यों को समझने का एक अनूठा दृष्टिकोण देता है। इस वृक्ष की शाखाओं के रूप में छर पुरुष या छर ब्रह्म का उल्लेख मिलता है, जिन्हें निरंजन, महाविष्णु और सदाशिव जैसे विभिन्न नामों से भी जाना जाता है। इनका मंत्र “ॐ” है, जो अपने ब्रह्मांड और अन्य ब्रह्मांडों की मूल ध्वनि और सत्ता का प्रतीक माना जाता है। आइए, इनके लोक और उनके महत्व को विस्तार से समझें। उल्टे वृक्ष का दार्शनिक अर्थ शास्त्रों में श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय 15, श्लोक 1-3) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह संसार एक अश्वत्थ वृक्ष के समान है, जिसकी जड़ें ऊपर और शाखाएँ नीचे हैं। इसकी जड़ें ब्रह्मांड की मूल सत्ता या परमात्मा से जुड़ी हैं, जबकि शाखाएँ माया, प्रकृति और जीवात्माओं के रूप में नीचे फैलती हैं। इस वृक्ष का एक महत्वपूर्ण हिस्सा वह सत्ता है, जिसे छर पुरुष या छर ब्रह्म कहा जाता है। यह वह प्राणसत्ता है जो सृष्टि के संचालन और संतुलन का आधार है। निरंजन, महाविष्णु, और सदाशिव: एक ही सत्ता के विविध नाम निरंजन का अर्थ है “जो रंजन (दाग) से मुक्त हो।” महाविष्णु सृष्टि के पालक और अंत में जल पर स्थित रहने वाले परम पुरुष के रूप में जाने जाते हैं, जिनसे कई ब्रह्मांडों की उत्पत्ति होती है। सदाशिव ध्यान और तप की गहराई में निवास करते हैं। ये सभी नाम एक ही परम सत्ता के विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हैं, और इनका मूल मंत्र “ॐ” है। यह ध्वनि सृष्टि की प्रथम कंपन है, जो हर जीव और कण में व्याप्त है। निरंजन का लोक: शून्य और अनंत का संगम निरंजन का लोक एक ऐसी अवस्था है, जो भौतिक और आध्यात्मिक दोनों से परे है। स्थान: यह लोक चौदह भुवनों (चौदह लोकों) से भी ऊपर माना जाता है। यहाँ तक पहुँचने के लिए जीव को अपने कर्मों, इंद्रियों और मन को पूर्णतः नियंत्रित करना पड़ता है। प्रकृति: यहाँ न ध्वनि है, न रूप, न रंग। यह शून्यता का वह स्वरूप है जो अनंत से जुड़ा हुआ है। प्रवेश: संत कबीर जैसे महान दार्शनिकों ने इसे “सहज योग” और “सुरति-शब्द योग” के माध्यम से प्राप्त करने की बात कही है। “ॐ” का जाप और ध्यान इस लोक की ओर ले जाने वाला मार्ग है। प्रतीक: कमल, शंख, चक्र और गदा महाविष्णु के इस लोक के प्रतीक हैं। “ॐ” मंत्र का महत्व “ॐ” केवल एक शब्द नहीं, बल्कि एक संपूर्ण ब्रह्मांडीय ऊर्जा है। यह तीन ध्वनियों—अ, उ, म—का संयोजन है, जो सृजन (ब्रह्मा), पालन (विष्णु) और संहार (शिव) का प्रतीक है। इस मंत्र का जाप करने से मनुष्य अपने भीतर की सत्ता को जागृत कर इन लोकों से जुड़ सकता है। निष्कर्ष उल्टे संसार रूपी वृक्ष की यह शाखाएँ—निरंजन, महाविष्णु, सदाशिव—हमें सिखाती हैं कि सृष्टि का हर पहलू एक ही परम सत्ता का अंग है। इनके लोक हमें उस अनंतता की याद दिलाते हैं, जो हमारे भीतर और बाहर दोनों में विद्यमान है। “ॐ” का जाप और आत्मचिंतन हमें इन लोकों तक ले जा सकता है, जिससे शाश्वतता का आभास होता है।

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अक्षर ब्रह्म

उल्टे संसार रूपी वृक्ष का रहस्य: अक्षर पुरुष और उनके लोक की पूरी जानकारी प्रस्तावना भारतीय दर्शन और अध्यात्म में “संसार रूपी वृक्ष” की अवधारणा बहुत गहरी और प्रतीकात्मक है। भगवद्गीता के 15वें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने इस संसार को एक “उल्टा वृक्ष” (अश्वत्थ वृक्ष) के रूप में वर्णित किया है। इसका तना, जड़ें, शाखाएँ और पत्तियाँ हमारे जीवन और ब्रह्मांड की संरचना को दर्शाते हैं। इस संदर्भ में “अक्षर पुरुष” एक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में उभरता है। आइए, इस उल्टे वृक्ष और अक्षर पुरुष के लोक के बारे में विस्तार से जानते हैं। उल्टा वृक्ष क्या है? भगवद्गीता (15.1-3) में कहा गया है: “ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥” अर्थात, इस संसार रूपी वृक्ष की जड़ें ऊपर (आध्यात्मिक क्षेत्र या परमात्मा) की ओर हैं, और शाखाएँ नीचे (भौतिक संसार) की ओर फैली हुई हैं। इसे “अश्वत्थ वृक्ष” कहा जाता है, जो नश्वर होने के बावजूद अविनाशी प्रतीत होता है। इसकी पत्तियाँ वेदों के छंदों के समान हैं, और जो इस वृक्ष को समझ लेता है, वही सच्चा ज्ञानी है। जड़ें: ये परमात्मा या ब्रह्म को दर्शाती हैं, जो इस वृक्ष का आधार हैं। तना: यह “अक्षर पुरुष” को संकेत करता है, जो जड़ों और शाखाओं के बीच एक सेतु की तरह है। शाखाएँ: ये भौतिक संसार, तीन गुणों (सत, रज, तम) और कर्मफल के विस्तार को दर्शाती हैं। यह वृक्ष उल्टा इसलिए कहा जाता है क्योंकि सामान्य वृक्ष की जड़ें नीचे और शाखाएँ ऊपर होती हैं, लेकिन यहाँ आध्यात्मिक स्रोत ऊपर है और भौतिक संसार नीचे फैला हुआ है। अक्षर पुरुष कौन है? भारतीय दर्शन में तीन पुरुषों की बात की जाती है: क्षर पुरुष: यह नश्वर जीवात्माएँ हैं, जो शरीर और भौतिक संसार से बंधी हैं। अक्षर पुरुष: यह अविनाशी आत्मा या चेतना है, जो क्षर से ऊपर लेकिन परम पुरुष से नीचे है। यह संसार रूपी वृक्ष का तना है। परम पुरुष (पुरुषोत्तम): यह परमात्मा है, जो इस वृक्ष की जड़ और सर्वोच्च सत्ता है। अक्षर पुरुष को “कूटस्थ” भी कहा जाता है, अर्थात् वह जो स्थिर और अपरिवर्तनशील है। यह वह चेतना है जो न तो जन्म लेती है और न ही मरती है, लेकिन कर्म और माया के प्रभाव से संसार में बंधी हुई प्रतीत होती है। भगवद्गीता के 15वें अध्याय में इसे”अक्षर” के रूप में वर्णशत ककया गया है, जो क्षर (नश्वर) और परुुषोिम (अत्तवनार्ी परम) के बीच की कडी है। अक्षर पुरुष का तना क्यों? संसार रूपी वृक्ष में अक्षर पुरुष को तना इसलिए कहा जाता है क्योंकि: यह जड़ों (परमात्मा) से शक्ति लेकर शाखाओं (भौतिक संसार) को पोषण देता है। यह स्थिरता और संतुलन का प्रतीक है, जो नश्वर और अविनाशी के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाता है। जैसे वृक्ष का तना जड़ों और पत्तियों को जोड़ता है, वैसे ही अक्षर पुरुष आत्मा को परमात्मा और संसार से जोड़ता है। अक्षर पुरुष का लोक या स्थान अक्षर पुरुष का लोक एक आध्यात्मिक अवस्था या क्षेत्र है, जिसे “अक्षर धाम” या “ब्रह्मलोक” के रूप में जाना जाता है। यह न तो पूर्णतः भौतिक है और न ही पूर्णतः परम धाम (पुरुषोत्तम का क्षेत्र)। इसके बारे में निम्नलिखित जानकारी दी जा सकती है: स्थान: यह सतलोक या कैवल्य धाम के नीचे और भौतिक संसार के ऊपर माना जाता है। वेदांत में इसे “हिरण्यगर्भ” या “महत्त्व” का क्षेत्र भी कहा जाता है, जहाँ सूक्ष्म चेतना निवास करती है। यह वह स्थान है जहाँ जीवात्मा माया के बंधनों से मुक्त होकर अपनी शुद्ध अवस्था में रहती है, लेकिन अभी भी परम पुरुष के साथ पूर्ण एकीकरण से दूर है। विशेषताएँ: यहाँ समय और मृत्यु का प्रभाव नहीं होता, लेकिन यह परम शांति का क्षेत्र नहीं है, क्योंकि यहाँ से भी परम धाम की ओर जाना संभव है। यहाँ की चेतना तीन गुणों (सत, रज, तम) से परे है, लेकिन पूर्ण मुक्त नहीं। योगी और साधक इसे ध्यान और समाधि के माध्यम से अनुभव करते हैं। शास्त्रों में उल्लेख भगवद्गीता (15.16-17) में कहा गया है: “द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥” अर्थात, संसार में दो पुरुष हैं – क्षर और अक्षर। क्षर सभी शरीरों में है, और कूटस्थ को अक्षर कहा जाता है उपनिषदों (जैसे मुंडक उपनिषद) में इसे “श्वेताश्वतर” या अत्तवनारी क्षेत्र के रूप में वर्णित किया गया है। अक्षर पुरुष और संसार का संबंध अक्षर पुरुष इस उल्टे वृक्ष का तना होने के कारण संसार के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह वह बिंदु है जहाँ से जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार ऊपर (परमात्मा) या नीचे (संसार) की ओर जाती है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं: जैसे सूर्य का प्रकाश बादलों से छनकर पृथ्वी पर आता है, वैसे ही परमात्मा की चेतना अक्षर पुरुष के माध्यम से संसार तक पहुँचती है। आध्यात्मिक महत्व इस उल्टे वृक्ष और अक्षर पुरुष को समझने का उद्देश्य जीवन की वास्तविकता को जानना है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस वृक्ष को “वैराग्य रूपी शस्त्र” से काटकर परम धाम की ओर बढ़ना चाहिए। अक्षर पुरुष का लोक एक पड़ाव है, जहाँ से साधक को पुरुषोत्तम की शरण लेनी होती है। निष्कर्ष “उल्टे संसार रूपी वृक्ष” का तना अक्षर पुरुष एक प्रतीक है जो हमें जीवन के दोहरे स्वरूप – नश्वर और अविनाशी – को समझाता है। इसका लोक वह सूक्ष्म क्षेत्र है जहाँ आत्मा अपनी शुद्धता को पहचानती है, लेकिन पूर्ण मुक्त होने के लिए उसे परम पुरुष की ओर बढ़ना पड़ता है। यह अवधारणा हमें यह सिखाती है कि जीवन का लक्ष्य केवल भौतिक सुख नहीं, बल्कि उस मूल स्रोत तक पहुँचना है, जहाँ से यह वृक्ष उत्पन्न हुआ है। क्या आप भी इस वृक्ष के रहस्य को समझकर अपने जीवन को नई दिशा देना चाहते हैं? अपनी राय और विचार हमारे साथ साझा करें!

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जीवन कलश

जीवन कलश एक ऐसा कॉन्टेंट है जो जीवन के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करता है और पढ़ने वालों को प्रेरित करता है यह ब्लॉक जीवन को सकारत्मक दिशा में ले जाने के लिए एक मार्ग प्रदान करता है मुख्य विषय जीवन कलश का जीवन कलश ब्लॉग पर कई विषयों पर चर्चा की जाती है जिनमें से कुछ प्रमुख विषय है: *मोटिवेशन और प्रेरणा: मोटिवेशन और प्रेरणा दो ऐसे शब्द है जो हमारे जीवन में सफलता की कुंजी है प्रेरणा हमें अपने लक्ष्यो की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करती है जबकि मोटिवेशन हमें अपने लक्ष्यो को प्राप्त करने के लिए आवश्यक ऊर्जा और उत्साह प्रदान करता है *प्रेरणा और मोटिवेशन के स्रोत प्रेरणा और मोटिवेशन के कई स्रोत हो सकते है जिनमें से कुछ प्रमुख स्रोत है: *आत्मविश्वास: आत्मविश्वास हमें लक्ष्यो की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करता है *सकारात्मक सोच: सकारात्मक सोच हमें अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए प्रेरित करती है *लक्ष्य निर्धारण: लक्षण निर्धारण हमें अपने लक्षण की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करता है *प्रेरक पुस्तकें: प्रेरक पुस्तक हमें अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए प्रेरित करती है *प्रेरक व्यक्ति: सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए प्रेरक व्यक्ति भी प्रमुख भूमिका निभाता है प्रेरणा और मोटिवेशन के कई लाभ हो सकते है, जिनमे से कुछ प्रमुख फायदे है *सफलता: मोटिवेशन और प्रेरणा हमें अपने लक्ष्यों की और बढ़ाने के लिए प्रेरित करते है जिससे हम सफलता प्राप्त कर सकते है *आत्मविश्वास: आत्मविश्वास को बढ़ाने में प्रेरणा और मोटिवेशन का योगदान होता है *उत्पादकता: मोटिवेशन और प्रेरणा हमे अपने काम में उत्पादकता को बढ़ाने मे मदद करते है आत्म सुधार एक ऐसी  प्रक्रिया है जिसमे हम अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए काम करते है यह एक सतक प्रक्रिया है जिसमें  हम अपने विचारो, भावनाओं और व्यवहार में सुधार करने के लिए प्रयास करते है आत्म सुधार के कई लाभ होते है जिनमें कुछ प्रमुख है *आत्मविश्वास में वृद्धि: आत्म सुधार हमें अपने आत्मविश्वास में वृद्धि करने में मदद करता है *व्यक्तिगत विकास: व्यक्तिगत विकास में आत्म-सुधार हमारे जीवन में परिवर्तन लाता है *संबंधो में सुधार: आत्म सुधार हमें अपने संबंधो में सुधार करने में मदद करता है आत्म सुधार के तरीके: कई तरीके आत्म-सुधार में सहयोग करते है *आत्म-विश्लेषण: आत्म-विश्लेषण हमें अपने विचारों भावनाओ, और व्यव्हार को समझने मे मदद करते है *लक्ष्य निर्धारण: लक्षण निर्धारण हमें अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए एक दिशा प्रदान करता है सकारात्मक सोच: सकारात्मक सोच हमें अपने विचारों में सकर्मकता लाने में मदद करती है *व्यक्तिगत विकास कार्यक्रम: व्यक्तिगत विकास कार्यक्रम हमें अपने व्यक्तिगत विकास में मदद करते है आत्म सुधार के लिए सुझाव * नियमित रूप में आत्मक विशेषण करें-नियमित रूप में आत्मा-विशेषण करने से आप अपने विचारों, भावनाओं और व्यवहार को समझने में मदद कर सकते है *लक्ष्य निर्धारण करे: लक्ष्य निर्धारण करने में आप अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए एक दिशा प्रदान कर सकते है *सकारात्मक सोच का प्राभव करे: सकारात्मक सोच का अभ्यास करने से आप अपने विचारों में सकारात्मक लाने में मदद कर सकते है *व्यक्तिगत विकास कार्यक्रम मे भाग ले: व्यक्तिगत विकास कार्यक्रम में भाग लेने से आप अपने व्यक्तिगत विकास में मदद कर सकते है जीवन के अनुभवो की समझ: जीवन को गहराई से समझने का एक मार्ग  सतत प्रक्रिया है जिसमें हम अपने जीवन के अनुभवों को समझने और उनका उपयोग अपने जीवन में सुधार करने के लिए करते है जीवन के अनुभवों की समझ के लाभ जीवन में अनुभवों की समझ के कई लाभ हो सकते है जिनमें कई प्रमुख है:- *आत्मज्ञान- जीवन के अनुभवों की समझ हमें अपने बारे में अधिक जानने में मदद करती है आत्मज्ञान के उदेश्य की समझ सकर्मक सोच व्यक्तिगत विकास जीवन के अनुभवों की समझ के तरीके जीवन के अनुभव की समझ के कई तरीके हो सकते हैं जिनमें से कुछ प्रमुख तरीके है *ध्यान योग: ध्यान योग हमें अपने जीवन के अनुभवों को समझने में मदद करते है *पुस्तक और लेख: पुस्तक और लेख हमें अपने जीवन के अनुभवों को समझने में मदद करते है

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ब्रह्मांड (Universe)

जैसे साइंस ने हमारे सौरमंडल, पृथ्वी, आकाशगंगा और सुपर कलस्टर इत्यादि थे आम तौर पर गुरुत्वाकषर्ण  से बंधे होते है। कुछ आकाशगंगा समूह 200 मिलियन प्रकाश वर्ष तक फैले होते है। यदि हम पीपल रूपी उल्टे वृक्ष के मैप के अनुसार सभी पत्तों में हमारा भी एक पत्ता रूपी ब्रह्मांड वैसे तो अनेकों पत्ते और अनेको ब्रह्मांड है। जिसकी अपनी समय अवधि होती है। जैसे एक समय के बाद पतझड़ में वृक्षों के पत्ते झड़ जाते है। वैसे ही ब्रह्मांड रूपी पत्ता संसार रूपी वृक्ष से नष्ट हो जाता है। फिर दूसरा ब्रह्मांड (पत्ता) का विस्तार होता है। जिसमे दुबारा से ग्रह, सौरमंडल, आकाशगंगा, आकाशगंगा समूह बनते है और जीवन पनपता है। फिर यू  ही जीवन चक्कर चलता रहता है। एक अनंत और रहस्यमय  विस्तार ब्रह्मांड हमारे अस्तित्व का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, इसके बारे में जानना हमारे लिए बहुत रोचक हो सकता है। ब्रह्मांड का रहस्यमय  विस्तार है। जिसके अरबो गलैक्सिया, तारे और ग्रह है। इस लेख में हम ब्रह्मांड के बारे में कुछ रोचक तथ्यों और अवधारणाओं पर चर्चा करेंगे। ब्रह्मांड का आकार और विस्तार ब्रह्मांड के आकार और विस्तार एक बहुत ही जटिल और रहस्यमय विषय है। वैज्ञानिकों के अनुमान के अनुसार ब्रह्मांड का व्यास  लगभग ९३ अरब  प्रकाश  वर्ष  है। और इसका आयतन लगभग 4. 2*10 ^ 80 मीट ^ 3 है। लेकिन यह आकार और विस्तार अभी भी एक अनुमान है। और वैज्ञानिकों को अभी भी इसके बारे में बहुत कुछ सीखना है। ब्रह्मांड की उत्पत्ति ब्रह्मांड की उत्पत्ति एक बहुत रोचक और जटिल विषय है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ब्रह्मांड लगभग 13.8 अरब वर्ष पूर्व एक महाकाय विस्फोट से उत्पन्न  हुआ था। जिसे बिग बैंग भी कहा जाता है इस विस्फोट से पहले ब्रह्मांड एक बहुत ही गर्म और घने अवस्था में था। और इसके बाद ही है विस्तारित होना शुरू हुआ। ब्रह्मांड का रहस्य ब्रह्मांड में बहुत सारे रहस्य है। जो अभी भी वैज्ञानिकों को आकर्षित करते हैं। इनमें कुछ प्रमुख रहस्य है: डार्क मैटर : एक प्रकार का पदार्थ है। जो ब्रह्मांड में व्यापत है लेकिन इसका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। डार्क एनर्जी: यह एक प्रकार की ऊर्जा है। जो ब्रह्मांड के विस्तार को बढ़ावा देती है। लेकिन इसका भी कोई प्रत्याशी प्रमाण नहीं है। ब्लैक होल्स : यह एक प्रकार के खगोलिय पिंड है। जो इतने घने होते है। कि उनके गुरुत्वाकपर्ण  से कुछ भी बच नहीं सकता है। ब्रह्मांड में हमारी पृथ्वी, अन्य ग्रह और उपग्रह है। जो एक दूसरे के गुरुत्वाकपर्ण  बल से ठीके हुए है। यदि हम अपने पृथ्वी के विस्तार की बात करें तो यह भूमधय रेखा के चारों ओर उसका विस्तार 40 हजार 75 किलोमीटर तक फैला है। हमारी पृथ्वी से चांद की दूरी 3 लाख  84 हजार किलोमीटर बताई गई है। जो हमारी पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाता हुआ। पूरे सौरमंडल के साथ गैलेक्सी के चारों और चक्कर लगाता है। हमारे तोर (सूर्य) से हमारे पृथ्वी की दूरी 14 करोड़ 96 लाख किलोमीटर है। पृथ्वी हमारे तारो के चारों ओर चक्कर लगाकर गैलेक्सी (आकाशगंगा) में घूम रही है। हमारे सौरमंडल में अनेकों ग्रह है जो सूर्य (तारो) के साथ आकाशगंगा के ब्लैक होल का चक्कर लगा रहे है। यदि हम अपने सौरमंडल और उसमें अनेकों ग्रहों की बात करे तो। हमारा सौरमंडल विज्ञान के अनुसार एक लाइट ईयर बड़ा है। पूरे लाइट ईयर में साइंस कहती है। करीब 95 खराब किलोमीटर होते है। यानि एक वर्ष में लाइट कितनी  दूरी तय करती है। उसको लाइट ईयर कहते हैं एक लाइट ईयर में प्रकाश  9.46 बिलियन किलोमीटर की दूरी तय करती है 94.60 या  95 खराब किलोमीटर भी कह सकते है। हमारे पृथ्वी सूर्य के चारो ओर 30 किलोमीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से चक्कर लगाती है। और अपने अक्ष पर 24 घंटे में एक चक्कर पूरा करती है। पृथ्वी अन्य ग्रह और सूर्य, हमारी आकाशगंगा के केंद्र के चारों और लगभग 200 किलोमीटर प्रति सेकंड की रफ्तार में परिक्रमा कर रहे है। जिसमें अन्य चंद्रमाओं और शुद्ध ग्रह के साथ मिल्की वे आकाशगंगा के केंद्र का चक्कर लगाता है। इसके बाद हमारी मंदाकिनी आकाशगंगा अपने समूह की आकाशगंगा के साथ ब्रह्मांड में चक्कर लगाती रहती है। इसका समय बहुत लंबा है जो अरबो-खरबो वर्ष है। और रफ्तार भी बहुत ज्यादा है। निष्कर्ष :- अब निष्कर्ष की बात कर तो हमारे जो वेद शास्त्रों ने जो संसार रूप उल्टे वृक्ष का नक्शा (मैप) बताया है। उसके एक पत्ते में इतना मैटर है जो युगो-युगो से चलाता जा रहा है। ब्रह्मांड के रहस्यो को समझने से हमें अपने अस्तित्व के बारे में अधिक जानने में मदद मिल सकती है। हमारे सारे ग्रह, सौरमंडल, आकाशगंगा समूह को ग्रन्थों-शास्त्रों ने संसार रूपी वृक्ष के एक पत्ता रूप बताया है। साइंस के अनुसार भी मल्टीयर यूनिवर्स है। जो अनेकों पत्तो रूपी ब्रह्मांड के विस्तार के रूप में वर्णन किया गया है।

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अध्यात्म तत्व ज्ञान क्या है?

वेदांत दर्शन  और शास्त्रों के माध्यम से जो तत्व ज्ञान  प्राप्त होता है, उसे जीवन का आद्यात्मिक सत्य   कहा जाता है। अद्यातम तत्व ज्ञान  प्रत्येक जीव का सवोत्तम लक्ष्य है। इसी ज्ञान  के माध्यम से ही संसार के भवसागर में भटक रही प्रत्येक जीव की आत्मा का कल्याण संभव है। वैसे तो संसार में प्रत्येक जीव कर्म  और भोग के चक्कर में उलझा रहता है। माया (प्रक्रति ) के तीन गुण – सतोगुण, रजोगुण, और तमोगुण – जीव की आत्मा को प्रत्येक जुनी  में फंसाए रखते हैं। 84 लाख जुनी में मनुष्य , पशु, पक्षी, पेड, देवता, राक्षस, पितर अन्य जीव आदि | सभी अपने-अपने लोक में कर्म  और भोगो  में लिप्त  हैं। हालाँकि मनुष्य  भी कर्म  और भोगो  में उलझा हुआ है, लेकिन मनुष्य जुनी में  वह हमारे शास्त्रों के अनुसार  इससे  पार होकर परमात्मा (मोक्ष) को प्राप्त कर सकता है। अन्य जुनियों में ऐसा  नही  हो सकता। यदि  हम अध्यात्म के तत्व ज्ञान  की बात करें, तो हमें अपने  शास्त्रों से जीवन  में अनेको  प्रकार का ज्ञान मिलता  है। पवित्र  शास्त्र हमें  बताते हैं की  हम अपने  जीवन को कैसे चलाएं, अच्छे कर्म  कैसे करें, और किस  प्रकार से जीवन व्यतीत करें। इस  ज्ञान  के माध्यम से मनुष्य  का जीवन  सरल और सुखमय  बन  सकता है। दूसरा आत्मतत्व ज्ञान , जो हमें महापुरुषों, संतों और वेदांत दर्शन  शास्त्रों से प्राप्त होता है, वह परमात्मा को तत्वरूप में जानने का ज्ञान  है। यह ज्ञान यह  समझने में मदद करता है कि  परमात्मा कोन  है? वह कोनसा  सा परमात्मा है, जो समय (काल) से बाहर है। जब जीव संसार के भवसागर में भटकता रहता  है, तो वह अपने जीवन के  अंतिम समय  में उस परमात्मा को याद  करता हुआ मोक्ष प्राप्त कर सकता है और सतलोक में अपनी  आत्मा को आनंदित  कर सकता है। प्रत्येक जीव का कर्म  और भोगों का चक्कर चलता रहेगा। यह  चक्कर कब से चल रहा है और कब तक चलेगा, इसका कोई अनुमान नही है। लेकिन मनुष्य  को परमात्मा का आत्मतत्व ज्ञान प्राप्त हो सकता है। यही  कारण है कि मनुष्य का जीवन  अन्य सभी जीवों की तुलना विशेष  है। इस जुनी में केवल मनुष्य को समझ और विवेक  है। वेदांत शास्त्रों को पढकर और संतों का संग करके,मनुष्यअपने  जीवन को कर्म  और भोगों के चक्र से मुक्त कर सकता है। यह  एक प्रसिद  कहावत है – “संग का रंग”, जो यह  बताती है कि संग का प्रभाव प्रत्येक जीव पर होता है। प्रत्येक जुनी में हर जीव  कर्म  करके अपने  जीवन  को चलाता है। लेकिन  हर जीव को खुदमुखत्मार और मोक्ष का मार्ग नही  मिलता । मनुष्य  के अलावा, सभी जुनियों में जीव  केवल कर्म  और भोगों के अनुसार अपना जीवन बिताती  रहती हैं। प्रत्येक जीव की आत्मा संसार के भवसागर में उलझी हुई है, और वह तरह-तरह की दुःख  और पीडा सहन करती रहती  है। जन्मों और जन्मांतरों के चक्कर में वह फंसा रहता है। इसी कारण से 84 लाख जुनियों में जीव की आत्मा समय  (काल) की अवधि में लगातार चक्कर लगाती रहती हैं। सभी जीवों को उनका समय  पूरा होने पर  दूसरे जन्म में आत्मा को शरीर मिलता  है। फिर  वही कमों का चक्कर और  भोगों में आत्मा लिप्त  रहती है। यदि जीव मनुष्य जीवन के दोरान अछे कर्म नही  करता और परमात्मा का  करता, तो उसे अपने जीवन के अंतिम समय के बाद ८४ लाख जुनियों के चक्कर में फंसा रहना पडता है। इसके बाद, दुःख- पीड़ा में आत्मा तरह- तरह जुनियों में जन्म लेकर जन्म लेकर कर्मों  के भोग भुगतती रहती है। अध्यात्म, भोतिकता से परे जीवन का अनुभव कराने का मार्ग है | यह व्यक्ति को अपने अस्तित्व के बारे में बताता है  और ईश्वरीय आनंद की अनुभूति कराता है |जब व्यक्ति आद्याय्त्मिक ज्ञान प्राप्त करता है, तो उसकी ईष्या, द्वेष, घृणा, और आपसी भेदभाव जैसी भावनाएं समाप्त हो जाती हैं। इसके परिणाम स्वरूप व्यनि को शाश्वत आनंद और शांति प्राप्त होती है। अध्यात्म हमें आत्मज्ञान (तत्वज्ञान) के बारे में बताता है। यह हमें  समझने में मदद करता है कि इस संसार से परे परमात्मा का स्थान कहां है, परमात्मा को पाना क्यों जरूरी है, और परमात्मा को कैसे पाया जा सकता है। और संसार से परे कोन है वह परमात्मा जिसे जानकर मनुष्य अपनी आत्मा को उस  ईश्वर के समीप पहुंचा सकता है। इसके साथ मोक्ष का स्थान भी स्पष्ट किया जाता है। मोक्ष वह अवस्था है, जहां जीव के सभी बंधन समाप्त हो जाते हैं, और आत्मा परमात्मा में विलीन होकर शाश्वत शांति प्राप्त करती है। भगवद गीता के अनुसार , संसार रूपी वृक्ष का उर्ध्ममूल (ऊपर की जड) वह परम अक्षर ब्रह्म है| जिसे सच्चिदानंद  ब्रह्मा, “The Supreme Power of God,” एक ओंकार, इल्लिला  और सर्वशक्तिमान के रूप में जाना जाता है। वह परमात्मा सत्पुरुष (सत्) के नाम से भी प्रसिद है। इसके नीचे तना रूप में जो अवस्था है | उसे ‘अक्षर ब्रह्म’, ‘तत्पुरुष’, ‘Truth God’ अल्ला  कहा जाता है। इस ब्रह्म का नाम ध्यान  (‘तत्’) होता  है। वृक्ष के तना अवस्था के नीचे  है, उस अवस्था को   डारों रूपी अवस्था होती है जिसमे अनेकों छर ब्रह्म (छर पुरुष ) होते है | जिनको सदाशिव , महाविष्णु , निरंजन , ला , God, भी कहते है | ऐसे ब्रह्म का ध्यान ‘ॐ’ होता है डारों अवस्थाओं के नीचे , शाखाओ अवस्थाओ  का स्थान  होता है |  जिनको तीनो बड़े देव’ ब्रह्मा (रजोगुण ), विष्णु (सतोगुण ), महेश ( तमोगुण ) ‘ के रूप में विस्तार है  | जिनको  इलेक्ट्रोन , प्रोटोन , न्यूट्रॉन    भी कहते है | जिनका ध्यान ॐ नम शिवाय , ॐ नमो. भगवते वासुदेवाये नम , ॐ ब्रह्म्ने नम  इत्यादी                                                                                                                                          शाखाओं से  नीचे  अवस्थाएं  अनेकों  पतों रूप में  हैं |  जो भोतिक संसार भवसागर  कर्म  और भोगो  के चक्र में उलझे हुए हैं। इनमे  छोटे देवताओं जैसे इंद्र, वायु , अनि, जल, ,सूर्य , देवता, और  लाखों  जुनियों के जीवों के शरीर शामिल  हैं। इसी प्रकार, पृथ्वी, सौरमंडल, आकाशगंगा, ब्रह्मांड इत्यादी  भी संसार रूपी वृक्ष के पत्तों में समाहित  हैं। इन पत्तों में से एक पत्ता इतना विशाल  है कि उसमें हमारी पृथ्वी, सौरमंडल, अनेकों आकाशगंगा, और ब्रह्मांड में  समाएं हुए  हैं। कबीर दास जी का दोहा अक्षर पुरुष…

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